खुशबू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की
खिड़की खुली है फिर उनके मकान की
हारे हुए परिंदे जरा उड़के देख तो
आ जायेगी ज़मीन पे छत आसमान की
बुझ जाये सरे आम ही जैसे कोई चिराग
कुछ यूँ है शुरुआत मेरी दास्तान की
ज्यों लूट ले कहार ही दुल्हिन की पालकी
हालत यही है आजकल हिन्दुस्तान की
औरों के घर की धुप उसे क्यों पसंद हो ,
बेचीं हो जिसने रौशनी अपने मकान की
जुल्फों के पेंचो-ख़म में उसे मत तलाशिये
ये शायरी ज़ुबां है किसी बेज़ुबान की
'सौरभ ' से बढकर और धनी कौन है यहाँ ?
उसके हृदय में पीर है सारे जहां की !!!
No comments:
Post a Comment