Thursday, October 27, 2016

क्या जलाऊँ???

क्या जलाऊँ???

तम को चीरने के लिए रौशनी के दिए जलाऊँ
या  दुश्मन की छाती पर कोई बम फोड़ आऊँ?
अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुँचाऊँ, पीड़ितों को न्याय दिलवाऊँ
या फिर अपना कर्तव्य निभाऊँ...
पर, आज इतनी तो तमन्ना ज़रूर है कि,
अन्धकार से भरी इस दुनिया में,मैं एक मशाल जलाऊँ ।

जब भूख से आवाज़ आनी बन्द हो जाये,
मैं उन सभी के लिए चूल्हे की लौ जलाऊँ
जिन बाजुओं में बल न हो, मैं उनका सम्बल बन जाऊँ,
जो भटक गये हैं रास्ते चलते चलते, या थक गए हैं मंज़िल की तलाश में,
मैं हर उस मुसाफिर के लिए आशा की किरण बन जाऊं,
आज इतनी तो तमन्ना ज़रूर है कि,
अन्धकार से भरी इस दुनिया में,मैं एक मशाल जलाऊँ ।

कभी रोऊँ, मुस्कुराऊँ, हँसू, नाचूँ या गाऊँ,
पर, मैं हर पल जीने की लौ जलाऊँ,
ज़िन्दगी से हताश, उदास और खिन्न लोगों के जीवन में,
जीने की एक नई अलख जगाऊँ,
आज इतनी तो तमन्ना ज़रूर है कि,
अन्धकार से भरी इस दुनिया में, मैं एक मशाल जलाऊँ ।

चलो एक दिया जला ही दिया जाये, ये अंधियार भगा ही दिया जाये,
जो सो रहे हैं, उन्हें जगा ही दिया जाये, उन्हें भी मार्ग पर ला ही दिया जाये,
इस दीपावली, कुछ जले न जले, सबके घर दो वक़्त चूल्हा जला ही दिया जाये।
अन्धकार से भरी इस दुनिया में, एक मशाल जला ही दिया जाये ।